Uday Bhan Mishra Ji here explores the termoil of heart while one aims at fulfilling te dreams. – Rajiv Krishna Saxena
सपन न लौटे
बहुत देर हो गई
सुबह के गए अभी तक सपन न लौटे
जाने क्या बात है
दाल में कुछ काला है
शायद उल्कापात कहीं होने वाला है
डरी दिशाएं दुबकी चुप हैं
मातम का गहरा पहरा है
किसी मनौती की छौनी सी बेबस द्रवित उदास धरा है
ऐसे में मेरे वे अपने सपन लाडले
जाने किन पहाड़ियों से, चट्टानों से
लड़ते होंगे
जाने किधर भटकते होंगे
उड़ते होंगे
भला कहीं कोई तो ऐसा
जो कुछ मेरी मदद कर सके
जाए ढूंढे देखे मेरे सपन कहाँ हैं
और जहाँ हों वहीँ पहुंच कर
कह दे उन से
उनका पिता यहां चौखट पर दिए संजोए
विजय संदेशा सुनने की इच्छा में
विह्वल
उनकी राहें जोह रहा है
∼ उदय भान मिश्र
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