सूने घर में – सत्यनारायण

सूने घर में – सत्यनारायण

A home that had seen good days is now an empty nest, in the throws of disintegration. Gone are the laughter and activities. Change and extinction are laws of nature, however painful it is. Here is a lovely poem by Satyanarayan Ji –Rajiv Krishna Saxena

सूने घर में

सूने घर में कोने कोने
मकड़ी बुनती जाल।

अम्मा बिन आंगन सूना है
बाबा बिन दालान‚
चिठ्ठी आई है बहिना की
सांसत में है जान‚
नित नित नये तकादे भेजे
बहिना की ससुराल।

भइया तो परदेस बिराजे
कौन करे अब चेत‚
साहू के खाते में बंधक
है बीघे भर खेत‚
शायद कुर्की जब्ती भी
हो जाए अगले साल।

ओर–छोर छप्पर का टपके
उनके काली रात‚
शायद अबकी झेल न पावे
भादों की बरसात‚
पुरखों की वह एक निशानी
किसे सुनाएं हाल।

फिर भी एक दिया जलता है
जब सांझी के नाम‚
लगता कोई पथ जोहे
खिड़की के पल्ले थाम‚
बड़ी बड़ी दो आंखें पूछें
फिर फिर वही सवाल।

सूने घर में कोने कोने
मकड़ी बुनती जाल।

∼ सत्यनारायण

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