There are times when lovers realize that their separation is inevitable and that they would never ever see each other. They may pretend otherwise but in their hearts they know the truth. Those moments are stressful and unforgettable. Final good-bye and all is over. A silent wound created in the heart with an ever-lasting pain. Here is a lovely poem by Pandit Narendra Sharma – Rajiv Krishna Saxena
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से दो प्रेम योगी अब वियोगी ही रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
सत्य हो यदि‚ कल्प की भी कल्पना कर धीर बाँधूँ‚
किंतु कैसे व्यर्थ की आशा लिये यह योग साधूँ?
जानता हूं अब न हम तुम मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आयेगा मधुमास फिर भी‚ आयेगी श्यामल घटा घिर‚
आँख भरकर देख लो अब‚ मैं न आऊंगा कभी फिर!
प्रााण तन से बिछुड़ कर कैसे मिलेंगे
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
अब न रोना‚ व्यर्थ होगा हर घड़ी आंसू बहाना
आज से अपने वियोगी हृदय को हँसना सिखाना
अब न हँसने के लिये हम तुम मिलेंगे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे‚
दूर होने पर सदा को ज्यों नदी के दो किनारे‚
सिंधु–तट पर भी न दो जो मिल सकेंगे।
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
तट नदी के भग्न उर के दो विभागों के सदृश हैं‚
चीर जिनको विश्व की गति वह रही है‚ वे विवश हैं‚
एक अथ–इति पर न पथ में मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
यदि मुझे उस पार के भी मिलन का विश्वास होता‚
सत्य कहता हूं न मैं असहाय या निरुपाय होता‚
किंतु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज तक किसका हुआ सच स्वप्न जिसने स्वप्न देखा?
कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्य–रेखा
अब कहां संभव कि हम फिर मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आह‚ अंंतिम रात वह‚ बैठी रहीं तुम पास मेरे‚
शीश कंधे पर धरे घन कुंतलों से गात घेरे‚
क्षीण स्वर में कहा था‚ ‘अब कब मिलेंगे?’
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
‘कब मिलेंगे?’ पूछता मैं विश्व से जब विरह कातर‚
‘कब मिलेंगे?’ गूंजते प्रतिध्वनि निनादित व्योम सागर‚
‘कब मिलेंगे?’ प्रश्न उत्तर ‘कब मिलेंगे?’
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
∼ पंडित नरेंद्र शर्मा
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