Women are much more tied to nature, home and society, than men are. They are the ones who inherit and sustain the scaffolding of the society and indulge men. They always have other concerns weighing on their minds. Here is a lovely poem by Sarveshwar Dayal Saxena that explores the feminine thought and sense of duty – Rajiv Krishna Saxena
चले नहीं जाना बालम
यह डूबी डूबी सांझ उदासी का आलम‚
मैं बहुत अनमनी चले नहीं जाना बालम!
ड्योढ़ी पर पहले दीप जलाने दो मुझ को‚
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझ को‚
मंदिर में घण्टे‚ शंख और घड़ियाल बजे‚
पूजा की सांझ संझौती गाने दो मुझको‚
उगने तो दो उत्तर में पहले ध्रुव तारा‚
पथ के पीपल पर आने तो दो उजियारा‚
पगडण्डी पर जल–फूल–दीप धर आने दो‚
चरणामृत जा कर ठाकुर जी की लाने दो‚
यह डूबी–डूबी सांझ उदासी का आलम‚
मैं बहुत अनमनी चले नहीं जाना बालम।
यह काली–काली रात बेबसी का आलम‚
मैं डरी–डरी सी चले नहीं जाना बालम।
बेले की पहले ये कलियां खिल जाने दो‚
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो‚
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गांठ पड़ी?
रजनीगंधा की ज्वार सुरभि को आने दो‚
इस नीम ओट से उपर उठने दो चंदा
घर के आंगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो मुझको बंद कपाट ज़रा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो‚
यह काली–काली रात बेबसी का आलम‚
मैं डरी–डरी सी चले नहीं जाना बालम।
यह ठण्डी–ठण्डी रात उनींदा सा आलम‚
मैं नींद भरी–सी चले नहीं जाना बालम।
चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो‚
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो‚
खामोश धरा‚ आकाश दिशाएं सोई हैं‚
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोई हैं?
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो‚
मुझ को आंचल में हरसिंगार भर लेने दो‚
मिटने दो आंखों के आगे का अंधियारा‚
पथ पर पूरा–पूरा प्रकाश हो लेने दो।
यह ठण्डी–ठण्डी रात उनींदा सा आलम‚
मैं नींद भरी–सी चले नहीं जाना बालम।
∼ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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