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मैं अकेला था कहाँ अपने सफर में, साथ मेरे छांह बन चलती रहीं तुम।

चलती रहीं तुम – बुद्धिनाथ मिश्र

Marriage is an amazing institution. A caring and supporting spouse is the greatest boon one can have that neutralizes the absurdity of this world. Gratitude of a man to his loving spouse is beautifully expressed in this poem. Rajiv Krishna Saxena

चलती रहीं तुम

मैं अकेला था कहाँ अपने सफर में
साथ मेरे छांह बन चलती रहीं तुम।

तुम कि जैसे चांदनी हो चंद्रमा में
आब मोती में, प्रणय आराधना में
चाहता है कौन मंजिल तक पहुँचना
जब मिले आनंद पथ की साधना में

जन्म जन्मों में जला एकांत घर में
और बाहर मौन बन जलती रहीं तुम।

मैं चला था पर्वतों के पार जाने
चेतना के बीज धरती पर उगाने
छू गये लेकिन मुझे हर बार गहरे
मील के पत्थर विदा देते अजाने

मैं दिया बन कर तमस से लड़ रहा था
ताप में बन हिमशिला, गलती रहीं तुम।

रह नहीं पाये कभी हम थके हारे
प्यास मेरी ले गये हर, सिंधु खारे
राह जीवन की कठिन, कांटों भरी थी
काट दी दो चार सुधियों के सहारे

सो गया मैं, हो थकन की नींद के वश
और मेरे स्वप्न में पलती रहीं तुम।

∼ डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

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