Here is another pleading for the love to stay for some more time. Rajiv Krishna Saxena
दो दिन ठहर जाओ
अभी ही तो लदी ही आम की डाली,
अभी ही तो बही है गंध मतवाली;
अभी ही तो उठी है तान पंचम की,
लगी अलि के अधर से फूल की प्याली;
दिये कर लाल जिसने गाल कलियों के–
तुम्हें उस हास की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!
हृदय में हो रही अनजान–सी धड़कन,
रगों में बह रही रंगीन–सी तड़पन;
न जाने किस लिये है खो गई सुधबुध,
न जाने किस नशे में झूमता है मन;
छलकती है उनींदे लोचनों से जो–
तुम्हें उस प्यार की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!
ठहर जाओ न उभरा प्यार ठुकराओ,
न मेरे प्राण का उपहार ठुकराओ!
उधर देखो लता तरु से लिपटती है,
न यह बढ़ता हुआ भुजहार ठुकराओ!
तुम्हे है आन धरती और सागर की
तुम्हें आकाश की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!
तुम्हें नधुमास की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!
∼ रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’
लिंक्स:
- कविताएं: सम्पूर्ण तालिका
- लेख: सम्पूर्ण तालिका
- गीता-कविता: हमारे बारे में
- गीता काव्य माधुरी
- बाल गीता
- प्रोफेसर राजीव सक्सेना