जाने क्या हुआ कि दिन काला सा पड़ गया
तुम धीरे से उठे और कुछ बिना कहे चल दिये, हम धीरे से उठे स्वयं को– बिना सहे चल दिये

जाने क्या हुआ – ओम प्रभाकर

Human interactions are most complex. Events some times take life of their own. People just drift away helplessly. Here is a beautiful poem on separation that happened…just like that… Rajiv Krishna Saxena

जाने क्या हुआ

जाने क्या हुआ कि दिन
काला सा पड़ गया।

चीज़ों के कोने टूटे
बातों के स्वर डूब गये
हम कुछ इतना अधिक मिले
मिलते–मिलते ऊब गये
आँखों के आगे सहसा–
जाला–सा पड़ गया।

तुम धीरे से उठे और
कुछ बिना कहे चल दिये
हम धीरे से उठे स्वयं को–
बिना सहे चल दिये
खुद पर खुद के शब्दों का
ताला सा पड़ गया।

जाने क्या हुआ कि दिन
काला सा पड़ गया।

∼ ओम प्रभाकर

लिंक्स:

 

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