Here is a very funny poem by Bal Krishna Garg on the inferiority complex felt by the common light bulb for tube light. Somewhere, this parallels the feelings of a boy when he comes in contact with a beautiful and sophisticated girl – Rajiv Krishna Saxena
मैं बल्ब और तू ट्यूब सखी!
मैं पीला–पीला सा प्रकाश‚ तू भकाभक्क दिन–सा उजास।
मैं आम‚ पीलिया का मरीज़‚ तू गोरी चिट्टी मेम ख़ास।
मैं खर–पतवार अवांछित–सा‚ तू पूजा की है दूब सखी!
मैं बल्ब और तू ट्यूब सखी!
तेरी–मेरी ना समता कुछ‚ तेरे आगे ना जमता कुछ।
मैं तो साधारण–सा लट्टू‚ मुझमे ज्यादा ना क्षमता कुछ।
तेरी तो दीवानी दुनिया‚ मुझसे सब जाते ऊब सखी।
मैं बल्ब और तू ट्यूब सखी!
कम वोल्टेज में तू न जले‚ तब ही मेरी कुछ दाल गले।
बरना मेरी है पूछ कहां हर‚ जगह तुझे ही मान मिले।
हूं सइज में भी मैं हेठा‚ तेरी हाइट क्या खूब सखी!
मैं बल्ब और तू ट्यूब सखी!
बिजली का तेरा खर्चा कम‚ लेकिन लाइट में कितना दम।
सोनिये‚ इलैक्शन बिना लड़े ही‚ जीत जाए तू खुदा क़सम।
नैया मेरी मंझधार पड़ी‚ लगता जाएगी डूब सखी!
मैं बल्ब और तू ट्यूब सखी!
तू मंहगी है मैं सस्ता हूं‚ तू चांदी तो मैं जस्ता हूं।
इठलाती है तू अपने पर‚ लेकिन मैं खुद पर हंसता हूं।
मैं कभी नहीं बन पाऊंगा‚ तेरे दिल का महबूब सखी!
मैं बल्ब और तू ट्यूब सखी!
~ बाल कृष्ण गर्ग
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