Here is a simple dream described by Girija Kumar Mathur; and everyone would like to own this dream as their own! If only it can be realized… Rajiv Krishna Saxena
मेरे सपने बहुत नहीं हैं
मेरे सपने बहुत नहीं हैं
छोटी सी अपनी दुनिया हो,
दो उजले–उजले से कमरे
जगने को–सोने को,
मोती सी हों चुनी किताबें
शीतल जल से भरे सुनहले प्यालों जैसी
ठण्डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो
तितली–सी रंगीन बगीची
छोटा लॉन स्वीट–पी जैसा,
मौलसरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा
हम हों, वे हों
काव्य और संगीत–सिंधु में डूबे–डूबे
प्यार भरे पंछी से बैठे
नयनों से रस–नयन मिलाए
हिल–मिलकर करते हों
मीठी–मीठी बातें
उनकी लटें हमारे कन्धें पर मुख पर
उड़–उड़ जाती हों,
सुशर्म बोझ से दबे हुए झोंकों से हिल कर
अब न बहुत हैं सपने मेरे
मैं इस मंजिल पर आ कर
सब कुछ जीवन में भर पाया।
∼ गिरिजा कुमार माथुर
लिंक्स:
- कविताएं: सम्पूर्ण तालिका
- लेख: सम्पूर्ण तालिका
- गीता-कविता: हमारे बारे में
- गीता काव्य माधुरी
- बाल गीता
- प्रोफेसर राजीव सक्सेना