फूल और मिट्टी – वीरबाला भावसार

फूल और मिट्टी – वीरबाला

Dear readers, my mother Dr. Veerbala who was my inspiration and a great help in the editorial work for Geeta-Kavita, is no more. She was 79 years old but remained alert and intellectually active till her end came on Monday the 9th August 2010. The only sister of the famous Hindi poet and writer Dr. Dharamvir bharati, Dr. Veerbala was a well known poetess and writer in her own right. Several of her poems are already available on this website.  In 1960s and 70s her poems use to appear in all prominent Hindi magazines. Her solitary novel “Maut Ka Phool” was published by S Chand and Co. and was greatly appreciated. She completed her PhD in Sanskrit in 1970 and joined Delhi University as a Sanskrit teacher. She retired from the university in 1996. She had three sons, Gopal Krishna Saxena, myself and Yogesh Krishna Saxena, of who only I am surviving. Dr. Shatendra Kumar, her husband and our father died in 1989. As a tribute to her, I am presenting a well known poem written by her about 60 years ago. Rajiv Krishna Saxena

फूल और मिट्टी

मिट्टी को देख फूल हँस पड़ा
मस्ती से लहरा कर पंखुरियाँ
बोला वह मिट्टी से–
उफ मिट्टी!
पैरों के नीचे प्रतिक्षण रौंदी जा कर भी
कैसे होता है संतोष तुम्हें?
उफ मिट्टी!
मैं तो यह सोच भी नहीं सकता हूं क्षणभर‚
स्वर में कुछ और अधिक बेचैनी बढ़ आई‚
ऊंचा उठ कर कुछ मृदु–पवन झकोरों में
उत्तेजित स्वर में‚
वह कहता कहता ही गया–
कब से पड़ी हो ऐसे?
कितने युग बीत गये?
तेरे इस वक्ष पर ही सृजन मुस्कुराए‚
कितने ताण्डव इठलाए?
किंतु तुम पड़ी थीं जहां‚
अब भी पड़ी हो वहीं‚
कोइ विद्रोह नहीं मन में तुम्हारे उठा‚
कोई सौंदर्य भाव पलकों पर नहीं जमा।
अधरों पर कोई मधु–कल्पना न आई कभी‚
कितनी नीरस हो तुम‚
कितनी निष्क्रिय हो तुम‚
बस बिलकुल ही जड़ हो!

मिट्टी बोली–प्रिय पुष्प
किसके सौंदर्य हो तुम?
किसके मधु–गान हो?
किसकी हो कल्पना‚ प्रिय?
किसके निर्माण हो?
किसकी जड़ता ने तुम्हें चेतना सुरभी दी है?
किसकी ममता ने जड़ें और गहरी कर दी हैं?
नित–नित विकसो‚ महको
पवन चले लहराओ‚
पंखुरिया सुरभित हों‚
किरन उगे मुस्काओ‚
लेकिन घबरा कर संघर्षों से जब–जब‚
मुरझा तन–मन लेकर मस्तक झुकाओगे‚
तब–तब ओ रूपवान!
सुरभि–वान!
कोमल–तन!
मिट्टी की गोद में ही चिर–शांति पाओगे।

∼ डॉ. वीरबाला

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