You have reached the peak of career and life is taking you places. You have accomplished what ever is worthwhile in life and a loving family surrounds you. Yet, that first love in the life long bygone though, still haunts you. When all is quiet around, that face silently emerges in thoughts. Look how beautifully Dushyant Kumar Ji puts it in words – Rajiv Krishna Saxena
तुझे कैसे भूल जाऊं
अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं।
गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में
गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में–
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं।
फैले हुए सवाल सा‚ सड़कों का जाल है‚
ये सड़क है उजाड़‚ या मेरा ख़याल है‚
सामाने–सफ़र बांधते–धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं।
फिर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग
होकर निढाल‚ शाम बजाती है जलतरंग‚
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं।
उन निलसिलों की टीस अभी तक है घाव में
थोड़ी–सी आंच और बची है अलाव में‚
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊं।
∼ दुष्यंत कुमार
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