तुम और मैंः दो आयाम – रामदरश मिश्र

तुम और मैंः दो आयाम – रामदरश मिश्र

Two lovely short poems about mature love. First poem refers to a plethora of pain, and sadness that accumulate through a life spent with each other, but remain silent and un-communicated. The second one shows how a couple after a life lived together; find themselves becoming un-separable parts of each other. Rajiv Krishna Saxena

तुम और मैंः दो आयाम

(एक)

बहुत दिनों के बाद
हम उसी नदी के तट से गुज़रे
जहाँ नहाते हुए नदी के साथ हो लेते थे
आज तट पर रेत ही रेत फैली है
रेत पर बैठे–बैठे हम
यूँ ही उसे कुरेदने लगे
और देखा कि
उसके भीतर से पानी छलछला आया है
हमारी नज़रें आपस में मिलीं
हम धीरे से मुस्कुरा उठे।

(दो)

छूटती गयी
तुम्हारे हाथों की मेहँदी की शोख लाली
पाँवों से महावर की हँसी
आँखों से मादका प्रतीक्षा की आकुलता
वाणी से फूटती शेफाली
हँसी से फूटती चैत की सुबह
मुझे लगा कि
मेरे लिये तुम्हारा प्यार कम होता जा रहा है
मैं कुछ नहीं बोला
भीतर–भीतर एक बोझ् ढोता रहा
और एक दिन
जब तुमसे टकराना चाहा
तो देखा
तुम ‘तुम’ थीं कहाँ?
तुम तो मेरा सुख और दुःख बन गयीं थीं।

~ रामदरश मिश्र

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