Indians settled abroad are generally viewed as the ones who have made it and have attained the ultimate success with respect to careers and worldly possessions. But what we do not often realize is what they have to sacrifice for this success. They give up the mother land, the cultural milieu and are for ever stuck in an alien culture. For many pravasi Indians, bodies remain in their adopted countries but hearts are left behind in India, wandering in the by lanes of the cities and villages they left behind. Rakesh Khandelwal Ji is a pravasi poet and in this poem he has beautifully depicted the nostalgia that often becomes all too powerful – Rajiv Krishna Saxena
अधूरी याद
चरखे का तकुआ और पूनी
बरगद के नीचे की धूनी
पत्तल, कुल्हड़ और सकोरा
तेली का बजमारा छोरा
पनघट, पायल और पनिहारी
तुलसी का चौरा, फुलवारी
पिछवाड़े का चाक, कुम्हारी
छोटे लल्लू की महतारी
ढोल नगाड़े, बजता तासा
महका महका इक जनवासा
धिन तिन करघा और जुलाहा
जंगल को जाता चरवाहा
रहट, खेत, चूल्हा और अंगा
फसल कटे का वह हुड़दंगा
हुक्का, पंचायत, चौपालें
झूले पड़ी नीम की डालें
बावन गजी घेर का लंहगा
मुंह बिचका दिखलाना ठेंगा
एक पोटली, लड़िया, छप्पर
माखन, दही टंगा छींके पर
नहर, कुआं, नदिया की धारा
कुटी नांद, बैलों का चारा
चाचा, ताऊ, मौसा, मामा
जय श्री कृष्णा, जय श्री रामा
मालिन, ग्वालिन, धोबिन, महरी
छत पर अलसाती दोपहरी
एक एक कर सहसा सब ही
संध्या के आंगन में आए
किया अजनबी जिन्हें समय ने
आज पुनः परिचित हो आए
वर्तमान ढल गया शून्य में
खुली सुनहरी पलक याद की
फिर से लगी महकने खुशबू
पूरनमासी कथा पाठ की
शीशे पर छिटकी किरणों की
चकाचौंध ने जिन्हें भुलाया
आज अचानक एकाकीपन में
वह याद बहुत हो आया
∼ राकेश खण्डेलवाल
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