Here is an excerpt from an old classic poem by Jaishankar Prasad. The beautiful rhythm, perfect meter and inquiry into ancient bharatiyata is a hallmark of Prasad Ji’s work. This poem is bound to generate nostalgia about ancient Indian culture of simplicity and virtuous living. ∼ Rajiv Krishna Saxena
भारत महिमा
हिमालय के आँगन में उसे
प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया
और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व
लोक में फैला फिर आलोक
व्योम–तम–पुंज हुआ तब नाश
अखिल संसृति हो उठी अशोक।
विमल वाणी ने वीणा ली
कमल–कोमल–कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे
छिड़ा तब मधुर साम–संगीत।
हमारे संचय में था दान
अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज
प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश
वही है साहस, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति
वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिये तो सदा इसी के लिये
यही अभिमान रहे, यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्य
हमारा प्यारा भारतवर्ष।
∼ जयशंकर प्रसाद
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प्रसाद जी पूरी कविता प्रकाशित करें । यह अधूरी कविता है । बीच के कुछ अनुच्छेद नहीं हैं ।
इसका अर्थ चाहिए