देश मेरे – राजीव कृष्ण सक्सेना

It was many many years ago when I was faced with the question of staying back in USA or return to India. Career and material considerations would have us stay back but deep rooted tug on heart would urge us to pack up and leave. As any pravasi Indian would testify, this is quite a heart wrenching decision to take. This poem was written at that time and was instrumental in taking me back to India – Rajiv Krishna Saxena

देश मेरे

मैं तज कर जा नहीं सकता तुझे ओ देश मेरे,
बुलाएं लाख ललचायें मुझे परदेश डेरे,
इसी पावन धरा पर हो मगन संतुष्ट हूँ मैं,
लुभा नहीं सकते धन धान्य महलों के बसेरे।

जुड़ा हूँ मैं अमिट इतिहास से कैसे भुला दूँ?
जो जागृत प्रीत की झंकार वह कैसे सुला दूँ?
जो घुट्टी संग भारत वर्ष की ममता मिली थी,
उसे कैसे भुलाकर आज माँ तुझसे विदा लूँ?

मैं तेरे संग बैसाखी की गर्मी में तपूंगा,
मगन हो आँधियों लू के थपेड़ों को सहूँगा,
सहस्त्रों वर्ष से जो मेघ भादों में बरसते,
तिलक हर वर्ष उन पावस की बूंदों से करूंगा।

 

मगन मस्त लेकर घूम आऊंगा अकेले,
उमड़ती भीड़ में मिल कुम्भ और पुष्कर के मेले,
कठिन हो पंथ पर हो शीश पर आशीष तेरा,
उसे पा झेल जाऊँगा सभी जग के झमेले।

कभी फिर रात्रि को छत पर निरख कर चाँद तारे,
सहज हे गुनगुनाउंगा मधुर वे गीत प्यारे,
लिखे हैं अमिट स्याही से ह्रदय पर आत्मा पर,
सुने शिशुकाल में या पूर्व जन्मों में हमारे।

∼ राजीव कृष्ण सक्सेना

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