Old homes have a personality. Like a close friend who saw us through thick and thin, sorrows and joys. It is as if all those old memories just get ingrained in its old walls. Here is a truly lovely poem by Vijaydevnarayan Sahi, telling just that. Compare it with Dr. Dharamvir Bharatis poem Kasbe Ki Shaam on the same theme – Rajiv Krishna Saxena
इस घर का यह सूना आंगन
सच बतलाना‚
तुम ने इस घर का कोना–कोना देख लिया
कुछ नहीं मिला!
सूना आंगन‚ खाली कमरे
यह बेगानी–सी छत‚ पसीजती दीवारें
यह धूल उड़ाती हुई चैत की गरम हवा‚
सब अजब–अजब लगता होगा
टूटे चीरे पर तुलसी के सूखे कांटे
बेला की मटमैली डालें‚
उस कोने में
अधगिरे घरौंदे पर गेरू से बने हुए
सहमी‚ शरारती आंखों से वे गोल गोल सूरज चंदा!
सूखी अशोक की तीन पत्तियां ओरी पर
शायद इस घर में कभी किसी ने बन्दनवार लगाई थी–
यह सब का सब
बेहद नीरस‚ बेहद उदास!
तुम सोच रही होगी‚ आखिर
इस घर में क्या है जिस को कोई प्यार करे?
शायद जो तुमने पाया उतना ही सच है।
पर अक्सर काफ़ी रात गये
इस घर का यह सून आंगन
जाने कैसे स्पंदन से भर–भर जाता है
बेबस आंखों से देखा करता है मुझ को‚
जैसे कोई खामोश दोस्त‚
मजबूर‚ किंतु हर दर्द समझने वाला हो!
सच‚ अक्सर काफ़ी रात गये।
∼ विजय देव नारायण साही
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