I wrote this poem, or should I say the poem forced its way out of my heart when I was stationed in US for a long period and was sorely missing home on the eve of Diwali- Rajiv Krishna Saxena
विवशता
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
पर निश्चय ही यह हृदय मेरा,
बेचैनी से अकुलाएगा,
कुछ नीर नैन भर लाएगा,
पर जग के कार्यकलापों से,
दायित्वों के अनुपातों से,
हारूँगा जीत न पाऊँगा।
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
जब संध्या की अंतिम लाली,
नीलांबर पर बिछ जाएगी,
नभ पर छितरे घनदल के संग,
जब सांध्य रागिनी गाएगी,
मन से कुछ कुछ सुन तो लूँगा,
पर साथ नहीं गा पाऊँगा।
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
जब प्रातः की मंथर समीर,
वृक्षों को सहला जाएगी,
मंदिर की घंटी दूर कहीं,
प्रभु की महिमा को गाएगी,
तब जोड़ यहीं से हाथों को,
अपना प्रणाम पहुँचाऊँगा।
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
जब ग्रीष्म काल की हरियाली,
अमराई पर छा जाएगी,
कूहू-कूहू कर के कोयल,
रस आमों में भर जाएगी,
रस को पीने की ज़िद करते,
मन को कैसे समझाऊँगा।
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
जब इठलाते बादल के दल,
पूरब से जल भर लाएँगे,
जब रंग बिरंगे पंख खोल,
कर मोर नृत्य इतराएँगे,
मेरे पग भी कुछ थिरकेंगे,
पर नाच नहीं मैं पाऊँगा।
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
जब त्यौहारों के आने की,
रौनक होगी बाज़ारों में,
खुशबू जानी पहचानी-सी,
बिख़रेगी घर चौबारों में,
उस खुशबू की यादों को ले,
मैं सपनों में खो जाऊँगा।
इस बार नहीं आ पाऊँगा…
पर निश्चय ही यह हृदय मेरा,
बेचैनी से अकुलाएगा,
कुछ नीर नैन भर लाएगा,
पर जग के कार्यकलापों से,
दायित्वों के अनुपातों से,
हारूँगा जीत न पाऊँगा।
∼ राजीव कृष्ण सक्सेना
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Bahut achi poem. i like it.