One more day has passed. Did it add some thing or took away some thing from the enigma that life is? How do we, or can we really evaluate any day? A lovely poem by Ramdarash Mishra Ji. – Rajiv Krishna Saxena
यह भी दिन बीत गया
यह भी दिन बीत गया।
पता नहीं जीवन का यह घड़ा
एक बूंद भरा या कि एक बूंद रीत गया।
उठा कहीं, गिरा कहीं, पाया कुछ खो दिया
बंधा कहीं, खुला कहीं, हँसा कहीं रो दिया
पता नहीं इन घड़ियों का हिया
आँसू बन ढलका या कुल का बन दीप गया।
इस तट लगने वाले कहीं और जा लगे
किसके ये टूटे जलयान यहाँ आ लगे
पता नहीं बहता तट आज का
तोड़ गया प्रीति या कि जोड़ नये मीत गया।
एक लहर और इसी धारा में बह गयी
एक आस यूं ही बंसी डाले रह गयी
पता नहीं दोनो के मौन में
कौन कहां हार गया, कौन कहां जीत गया।
∼ रामदरश मिश्र
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