दोपहर, नवंबर महीने की
यह है अनजान दूर गाँवों से आई हुई, रेल के किनारे की पगडंडी कुछ देर संग–संग दौड़–दौड़, अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जाएगी…

नवंबर की दोपहर – धर्मवीर भारती

Here is a lovely poem of Dr. Dharamvir Bharati. Rajiv Krishna Saxena

नवंबर की दोपहर

अपने हलके–फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले सी यह दोपहर नवंबर की।

आयीं गयीं ऋतुएँ‚ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो क्ंवारेपन के कच्चे छल्ले–सी
इस मन की उंगली पर
कस जाए‚ और फिर कसी ही रहे
नितप्रति बसी ही रहे
आँखों में‚ बातों में‚ गीतों में‚
आलिंगन में‚ घायल फूलों की माला–सी
वक्षों के बीच कसमसाती ही रहे।

भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख
सोने के हंसों सी धूप यह नवंबर की
उस आँगन में भी उतरी होगी
सीपी के ढालों पर केसर की लहरी सी
गोरे कंधों पर फिसली होगी बिना आहट
गदराहट बन–बन ढली होगी अंगों में।

आज इस बेला में
दर्द ने मुझको‚
और दोपहर ने तुमको‚
तनिक और भी पका दिया।
शायद यही तिल–तिल कर पकना रह जायगा
साँझ हुए हंसों सी दोपहर पाखें फैला
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जाएगी‚
यह है अनजान दूर गाँवों से आई हुई
रेल के किनारे की पगडंडी
कुछ देर संग–संग दौड़–दौड़
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जाएगी…

~ धर्मवीर भारती

लिंक्स:

Check Also

Basanti Hawa, Cool spring air

बसंती हवा – केदार नाथ अग्रवाल

Have you traveled through rural areas in Northern India in springtime? It is the time …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *