Here is a poem that seems to come from times bygone. A village woman writing to her husband who lives in a city. I wonder if such letters are written anymore. Quite a nostalgia! Rajiv Krishna Saxena
परदेसी को पत्र
सोसती सर्व उपमा जोग बाबू रामदास को लिखा
गनेस दास का नाम बाँचना।
छोटे बड़े का सलाम, आसिरवाद, जथा उचित पहुँचे।
आगे यहाँ कुसल है
तुम्हारी कुसल काली जी से दिन रात मनाती हूँ।
वह जो अमौला तुमने धरा था द्वार पर,
अब बड़ा हो गया है।
खूब घनी छाया है।
भौंरौं की बहार है।
सुकाल ऐसा ही रहा तो फल अच्छे आएँगे।
और वह बछिया कोराती है।
यहाँ जो तुम होते!
देखो कब ब्याती है।
रज्जो कहती है बछड़ा ही वह ब्याएगी
देखो क्या होता है।
पाँच–पाँच रुपये की बाजी है।
देखें कौन जीतता है।
मन्नू बाबा की भैंस ब्याई है।
कोई दस दिन हुए।
इनरी भिजवाते हैं।
तुमको समझते हैं, यहीं हो।
हाल चाल पुछवाते रहते हैं ।
तुम्हें गाँव की क्या कभी याद नहीं आती है?
आती तो आ जाते
मुझको विश्वास है।
थोड़ा लिखा समझना बहुत
समझदार के लिये इशारा ही काफी है
ज्यादा शुभ।
~ त्रिलोचन
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