This poem is of the era when food scarcity and draughts were chronic problems in India. The joy of getting some grains and cooking food after days without food can be imagined. It would have been celebrated not only by humans but the tiny animal life that lurked around. Enjoy this classic short poem by Nagarjun – Rajiv Krishna Saxena
कई दिनों तक चूल्हा रोया
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास‚
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तह लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त‚
कही दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आये घर के अंदर बहुत दिनों के बाद‚
धुंआं उठा आंगन से ऊपर बहुत दिनों के बाद‚
चमक उठीं घर भर की आंखें बहुत दिनों के बाद‚
कौए नें खुजलाई पांखें बहुत दिनों के बाद।
~ नागार्जुन
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