कस्बे की शाम – धर्मवीर भारती

कस्बे की शाम – धर्मवीर भारती

As we “progress” in life, complexities of living and thinking increase. Then one day suddenly we come face to face with the simple life and scenery from the past. It then appears as if all that no longer belongs to us. As if the past in now beyond our reach. We cannot turn the clock back and become a part of that past again. Read this lovely poem by Bharati Ji, depicting this immense loss – Rajiv Krishna Saxena

कस्बे की शाम

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई
खेतों में अन्हियारी घिर आई
पश्चिम की सुनहरिया घुंघराई
टीलों पर, तालों पर
इक्के दुक्के अपने घर जाने वाले पर
धीरे धीरे उतरी शाम !

आँचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जम्हाई ले लेकर उजियाली,
जा बैठी ताखों में
घर भर के बच्चों की आँखों में
धीरे धीरे उतरी शाम !

इस अधकच्चे से घर के आँगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन

लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे, खट्टे मीठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब झुक कर मेरे सिरहाने–
कहती है
“भटको बेबात कहीं!
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !”

धीरे धीरे उतरी शाम !

∼ धर्मवीर भारती

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