Mid summer night, on the riverbank, one hears someone singing on the other side of the river. Poet just listens and wonders who is singing, and why – Rajiv Krishna Saxena
कोई पार नदी के गाता
भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्वर
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता
कोई पार नदी के गाता
होंगे भाई-बंधु निकट ही
कभी सोचते होंगे यह भी
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता
कोई पार नदी के गाता
आज न जाने क्यों होता मन
सुन कर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता
कोई पार नदी के गाता
∼ हरिवंश राय बच्चन
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