As the sun sets and darkness prepares to engulf the world, a strange depression some times sets in our thoughts. In this lovely poem Maitreyee Ji has drawn a shabda chitra of this sense of restlessness. I first read this poem on the yahoo ekavita group – Rajiv Krishna Saxena
उदास सांझ
दिनभर तपा धूप में थक कर‚
हो निढाल ये बूढ़ा सूरज‚
बैठ अधमरे घोड़ों पर – जो
डगमग गिर गिर कर उठते से
कदमों को बैसाखी पर रख‚
संध्या की देहरी पर आकर‚
लगता है गिरने वाले हैं।
पथ के मील‚ पांव के छाले
बन कर सारे फूट गये हैं‚
जिनसे बहता रक्त‚ सांझ की
अंगनाई में बिखर गया है‚
और दुशाला ओढ़ सुरमई‚
खड़ा द्वार पर टेक लगाये–
तिमिर‚ हाथ की मैली चादर
उसके ऊपर डाल रहा है।
एक कबूतर फिर शाखों पर
नया बिछौना बिछा रहा है।
एक और दिन बीत रहा है।
लेकिन मन की गहन उदासी
ढलती नहीं दिवस ढलने पर‚
बढ़ते हुए अंधेरे के संग
गहरी और हुई जाती है।
फौलादी सन्नाटा‚ कटता नहीं‚
तनिक कोशिश करती हूं–
और हार कर‚ थक कर मैं भी‚
कोहनी टिका मेज पर अपनी‚
मुट्ठी ठोड़ी पर रखती हूं‚
और शून्य में खो जाती हूं।
~ मैत्रेयी अनुरूपा
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