मंजिल दूर नहीं है वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है चिनगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से, चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण चिन्ह जगमग से। शुरू हुई आराध्य भूमि यह, क्लांत नहीं रे …
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