In today’s world, only falsehood survives and prospers. Genuineness has no scope. We all feel this at times as we see the non-deserving sycophants get ahead in life whereas the truthful hard-worker languishes. Here is a lovely poem depicting this scene. Rajiv Krishna Saxena
सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं
सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं
जुगनुओं को अंधेरे में पाला गया
फ्यूज़ बल्बों के अदभुत समारोह में
रोशनी को शहर से निकाला गया।
बुर्ज पर तम के झंडे फहरने लगे
सांझ बनकर भिखारिन भटकती रही
होके लज्जित सरेआम बाज़ार में
सिर झुकाए–झुकाए उजाला गया।
नाम बदले खजूरों नें अपने यहां
बन गए कल्प वृक्षों के समकक्ष वे
फल उसी को मिला जो सभाकक्ष में
साथ अपने लिये फूलमाला गया।
उसका अपमान होता रहा हर तरफ
सत्य का पहना जिसने दुपट्टा यहां
उसका पूजन हुआ‚ उसका अर्चन हुआ
ओढ़ कर झूठ का जो दुशाला गया।
फिर अंधेरे के युवराज के सामने
चांदनी नर्तकी बन थिरकने लगी
राजप्रासाद की रंगशाला खुली
चांद के पात्र में जाम ढाला गया।
जाने किस शाम से लोग पत्थर हुए
एक भी मुंह में आवाज़ बाकी नहीं
बांधकर कौन आंखों पे पट्टी गया
डाल कर कौन होंठों पे ताला गया।
वृक्ष जितने हरे थे तिरस्कृत हुए
ठूंठ थे जो यहां पर पुरस्कृत हुए
दंडवत लेटकर जो चरण छू गया
नाम उसका हवा में उछाला गया।
∼ कुमार शिव
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