This famous poem by Narottam Das (AD 1550-1605) describes the story of Sudama who was a close friend of Lord Krishna. Sudama lived in poverty and his wife always prodded Sudama to visit Lord Krishna in Dwarka for some financial help. Sudama felt reluctant to ask money from a friend but he finally relented. Lord Krishna heartily welcomed Sudama when he reached Dwarka but Sudama could not ask for money and returned empty handed. However when he reached his home he found that in his absence Lord Krishna had already had his dilapidated hut replaced with a grand golden palace. Rajiv Krishna Saxena
सुदामा चरित
ज्ञान के सामने धन की महत्वहीनता सुदाम पत्नी को बताते हैंः
सिच्छक हौं सिगरे जग के तिय‚ ताको कहां अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत‚ संपति की तिनके नहि इच्छा।
मेरे हिये हरि के पद–पंकज‚ बार हजार लै देखि परिच्छा
औरन को धन चाहिये बावरि‚ ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा
सुदामा पत्नी अपनी गरीबी बखानी हैः
कोदों सवाँ जुरितो भरि पेट‚ तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बतीतत जौ सिसियातहिं‚ हौं हठती पै तुम्हें न हठौती।
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें‚ काहे को द्वारिकै पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय‚ टूटो तवा अरु फूटी कठौती।
सुदामा उत्तर देते हैंः
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक‚ आठहु जाम यहे झक ठानी।
जातहि दैहैं‚ लदाय लढ़ा भरि‚ लैहैं लदाय यहे जिय जानी।
पाउँ कहाँ ते अटारि अटा‚ जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जे पै ग्रिद्र लिखो है ललाट तौ‚ काहु पै मेटि न जाय अयानी।
अंततः पत्नी की बात मानने के सिवा कोई चारा न देख सुदामा कहते हैं कि मैं सखा कृष्ण के लिये क्या उपहार ले जाऊंः
द्वारका जाहु जू द्वारका जाहु जू‚ आठहु जाम यहे झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तै बड़ौ दुख‚ जैये कहाँ अपनी गति हेरे।
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ‚ भूपति जान न पावत नेरे।
पांच सुपारि तै देखु बिचार कै‚ भेंट को चारि न चाउर मेरे।
एक पोटली भुने चावल का उपहार लेकर सुदामा कृष्ण से मिलने द्वारका जाते हैं। श्री कृष्ण के महल का चौकीदार फटे हाल सुदाम के बारे में स्वामी को बताता हैः
सीस पगा न झगा तन में प्रभु‚ जानै को आहि बसै किस ग्रामा।
धोति फटी सी लटी दुपटी अरु‚ पायँ ऊपानह की नहिं सामा।
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक‚ रह्यो चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम. बतावत आपनो नाम सुदामा।
श्री कृष्ण सुदामा का नाम सुनते ही भाग कर उन्हें अंदर ले आते हैं और उसकी दीन दशा पर दुखी होते हैंः
ऐसे बेहाल बेवाइन सौं पग‚ कंटक–जाल लगे पुनि जोये।
हाय महादुख पायो सखा तुम‚ आये इतै न कितै दिन खोये।
देखि सुदामा की दीन दसा‚ करुना करिके करुनानिधि रोय।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं‚ नैनन के जल से पग धोये।
सुदाम भुने चावल का उपहार देने में सकुचाते हैं पर भगवान कृष्ण उसे छीन कर स्वाद ले ले कर खाते हैंः
आगे चना गुरु–मातु दिये त‚ लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यो मुसुकाय सुदामा सों‚ चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने।
पोटरि काँख में चाँँपि रहे तुम‚ खोलत नाहिं सुधारस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम‚ तैसइ भाभी के तंदुल कीने।
भगवान कृष्ण ने सुदामा को विदाई में कुछ न दिया पर जब सुदाम वापस घर पहुंचे तब सोने के महल स्वरूप अपने नये घर को देख कर चकिता रह गये। भगवान कृष्ण को मन ही मन धन्यवाद दियाः
वैसेइ राज समाज बने‚ गज बाजि घने मन सम्भ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं‚ द्वारिके के महिलों फिर आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँँव मझाँयौ।
पूछत पाड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूं खोज न पायौ।
कै वह टूटि–सि छानि हती कहाँ‚ कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ‚ लै गजराजुहु ठाढ़े महावत।
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ‚ कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु‚ के परताप तै दाख न भावत।
~ नरोत्तम दास
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अति उत्तम उत्कृष्ट रचना और उत्कृष्ट रचनाकार । धरोहर है ये हमारी. अब न तो ऐसे सँत हृदय कवि मिलेंगे ना ऐसी प्राणदायिनी कविता मिलेगी..
इसे संजोकर रखने और हम जैसे पिपासों की तृष्णा बुझाने के लिए बहुत बहुत साधुवाद….
Manohar sabbd charitarth ho gaya