बुनी हुई रस्सी – भवानी प्रसाद मिश्र

Here is a famous poem by Bhavani Prasad Mishra. Some deep thoughts about the creation of a poem and its texture. Too much analysis of a poem defeats the whole purpose. It simply cannot be broken down into components. Rajiv Krishna Saxena

बुनी हुई रस्सी

बुनी हुई रस्सी को घुमाएं उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे

मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहां

कविता को बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशों को
समेटकर लिखता है।

∼ भवानी प्रसाद मिश्र

लिंक्स:

 

Check Also

Handful important events are the essence of human life!

इक पल है नैनों से नैनों के मिलने का – राजीव कृष्ण सक्सेना

If we look back at our lives we find that there were some moments of …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *