धूप की चादर – दुष्यंत कुमार

धूप की चादर – दुष्यंत कुमार

Dushyant Kumar’s poems describe the reality of life and human experience in unique metaphors. Here is another one of his famous poems. My favorite stanza is the fourth one. Genuine people are pushed back in life whereas the fake ones push their way to the front. Rajiv Krishna Saxena

धूप की चादर

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए,
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा,
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को,
अब अपनी–अपनी हथेली जला के बैठ गए।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो,
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

लहू–लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो,
शरीफ लोग उठे दूर जाके बैठ गए।

ये सोच कर कि दरख्.तों की छांव होती है,
यहां बबूल के साए में आके बैठ गए।

∼ दुष्यंत कुमार

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