गाय (भारत–भारती से) – मैथिली शरण गुप्त

गाय (भारत–भारती से) – मैथिली शरण गुप्त

Here is an excerpt from the classic epic Bharat-Bharti written by Rashtra Kavi Maithili Sharan Gupt (1886-1964). The topic is very contemporary as beef eating is being discussed extensively these days. The poem is very moving and in a way argues against killing of defense-less animals by all powerful humans just for eating. Interestingly Gupt Ji directly addresses Muslim populations and advises Hindus and Muslims to live peacefully in the interest of the country. Rajiv Krishna Saxena

गाय (भारत–भारती से)

है भूमि बन्ध्या हो रही, वृष–जाति दिन भर घट रही
घी दूध दुर्लभ हो रहा, बल वीर्य  की जड़ कट रही
गो–वंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है
तो भी यहाँ उसका निरंतर हो रहा संहार है

दाँतों तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रहीं
हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही?
हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया
देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया

हा! दूध पीकर भी हमारा पुष्ट होते हो नहीं
दधि, घृत तथा तक्रादि से भी तुष्ट होते हो नहीं
तुम खून पीना चाहते हो तो यथेष्ट वही सही
नर–योनि हो, तुम धन्य हो, तुम जो करो थोड़ा वही!

क्या वश हमारा है भला, हम दीन हैं, बलहीन हैं
मारो कि पालो कुछ करो, हम सदैव अधीन हैं
प्रभु के यहाँ से भी कदाचित् आज हम असहाय हैं
इससे अधिक अब क्या कहें, हा! हम तुम्हारी गाय हैं

जो हे मुसलमानो! हमें कुर्बान करना धर्म है
तो देश की यों हानि करना, क्या नहीं दुष्कर्म है?
बीती अनेक शताब्दियाँ जिस देश में रहते तुम्हें
क्या लाज आएगी उसे अपना ‘वतन’ कहते तुम्हें?

जिस देश के वर–वायु से सकुटुम्ब तुम हो जी रहे
मिष्टान्न जिसका खा रहे, पीयूष सा जल पी रहे
जो अन्त में तन को तुम्हारे ठौर देगा गोद में
कर्तव्य क्या तुमको नहीं रखना उसे आमोद में?

हिंदू हमें जब पालते हैं धर्म अपना मान के
रक्षा करो तब तुम हमारी देशहित ही जान के
हिंदू तथा तुम सब चढ़े हो एक नौका पर यहाँ
जो एक का होगा अहित, तो दूसरे का हित कहाँ?

~ मैथिली शरण गुप्त

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