कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये – दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये – दुष्यंत कुमार

After India attained independence in 1947, people had high hopes and looked forward to better their lives under the self-rule. These hopes were however shattered in coming decades and an all out frustration gripped the society. Dushyant Kumar died in 1975 (at a young age of 52). He sensed the frustration first hand and his work beautifully captured the mood of people in that era of losing hopes – Rajiv Krishna Saxena

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये।

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये।

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये।

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये।

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये।

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये।

∼ दुष्यंत कुमार

मयस्सर ∼ उपलब्ध
मुतमईन ∼ संतुष्ट
मुनासिब ∼ ठीक

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