Omar Khayyam, a Persian philosopher poet lived about a thousand years ago. He was a mathematician, geographer, a scientist and a great poet. His Rubaiyat acquired great fame as they pondered over the meaningless fleeting life that humans suffer. In nineteenth century this work was translated by Fitzgerald into English. Harivansh Rai Bachchan translated Fitzgerald’s English translation into Hindi as ‘Khayyam ki Madhushala”. This superb work later became inspiration for Bachchan’s own classic work “Madhushala” from which an excerpt is already available on Geeta-Kavita. Here is part-I of an excerpt from Khayyam ki Madhushala. Rajiv Krishna Saxena
ख़य्याम की मधुशाला (भाग एक)
चलो चल कर बैठें उस ठौर,
बिछी जिस थल मखमल सी घास,
जहाँ जा शस्य श्यामला भूमि,
धवल मरु के बैठी है पास।
घनी सिर पर तरुवर की डाल,
हरी पाँवों के नीचे घास,
बग़ल में मधु मदिरा का पात्र,
सामने रोटी के दो ग्रास,
सरस कविता की पुस्तक हाथ,
और सब के ऊपर तुम प्राण,
गा रही छेड़ सुरीली तान,
मुझे अब मधु नंदन उद्यान।
सुना मैंने कहते कुछ लोग,
मधुर जग पर मानव का राज,
और कुछ कहते जग से दूर,
स्वर्ग में ही सब सुख का साज!
दूर का छोड़ प्रलोभन मोह,
करो जो पास उसी का मोल,
सुहाने बस लगते हैं, प्राण,
अरे ये दूर–दूर के ढोल!
जगत की आशाएँ जाज्वल्य,
लगाता मानव जिन पर आँख,
न जाने सब की सब किस ओर,
हाय! उड़ जातीं बन कर राख!
किसी की यदि कोई अभिलाष,
फली भी तो वह कितनी देर,
धूसरित मरु पर हिमकण राशि,
चमक पाती है कितनी देर!
समेटा जिन कृपणों ने स्वर्ण,
सुरक्षित रक्खा उसको मूँद,
लुटाया और जिन्होंने खूब,
लुटाते जैसे बादल बूँद,
गड़े दोनों ही एक समान,
हुए मिट्टी के दोनों हाड़,
न कोई हो पाया वह स्वर्ण,
जिसे देखें फिर लोग उखाड़।
यहाँ आ बड़े बड़े सुल्तान,
बड़ी थी जिनकी शौकत शान,
न जाने कर किस ओर प्रयाण,
गये बस दो दिन रह मेहमान।
और अब जो कुछ भी है शेष,
भोग वह सकते हम स्वच्छंद,
राख में मिल जाने के पूर्व
न क्यों कर लें जी भर आनंद;
गड़ेंगे जब हम होकर राख
राख में तब फिर कहाँ बसंत
कहाँ स्वरकार, सुरा, संगीत,
कहाँ इस सूनेपन का अंत!
∼ हरिवंश राय बच्चन
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