कोई और छाँव देखेंगे - ताराप्रकाश जोशी

कोई और छाँव देखेंगे – ताराप्रकाश जोशी

We often feel that this life was just a learning experience and if only we could do it again with the accumulated wisdom. At time we feel dejected at the contorted and unfair ways of the world. If only we could run away and find a better place… This poem of Taraprakash Joshi depicts the feeling very well. Rajiv Krishna Saxena

कोई और छाँव देखेंगे

कोई और छाँव देखेंगे।
लाभ घाटों की नगरी तज
चल दे और गाँव देखेंगे।

सुबह सुबह के सपने लेकर
हाटों हाटों खाए फेरे।
ज्यों कोई भोला बनजारा
पहुचे कहीं ठगों के डेरे।
इस मंडी में ओछे सौदे
कोई और भाव देखेंगे।

भरी दुपहरी गाँठ गँवाई
जिससे पूछा बात बनाई।
जैसी किसी ग्रामवासी की
महा नगर ने हँसी उड़ाई।
ठौर ठिकाने विष के दागे
कोई और ठाँव देखेंगे।

दिन ढल गया उठ गया मेला
खाली रहा उम्र का ठेला।
ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर
खेला रह जाए अनखेला।
हार गए यह जनम जुए में
कोई और दाँव देखेंगे।

किसे बतयें इतनी पीड़ा
किसने मन आँगन में बोई।
मोती के व्यापारी को क्या
सीप उम्रभर कितना रोई।
मन के गोताखोर मिलेंगे
कोई और नाव देखेंगे।

~ ताराप्रकाश जोशी

लिंक्स:

 

Check Also

जाने क्या हुआ कि दिन काला सा पड़ गया

जाने क्या हुआ – ओम प्रभाकर

Human interactions are most complex. Events some times take life of their own. People just …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *