सम्पाती – धर्मवीर भारती

सम्पाती – धर्मवीर भारती

Challenges are taken by the youth. In old age one becomes mature and wiser not only to avoid pointless challenges but to come to realize that accepting challenges is in a way pointless. This poem is one of the trilogy of poems on this theme of remaining unaffected and unmoved in conflicts, that Bharti Ji has presented in his last book Sapana Abhi Bhi All three poems touch a chord especially in people especially those who have experienced life in all its hues Rajiv K. Saxena

(जटायु का बड़ा भाई गिद्ध जो प्रथम बार सूर्य तक पहुचने के लिए उड़ा पंख झुलस जाने पर समुद्र-तट पर गिर पड़ा! सीता की खोज में जाने वाले वानर उसकी गुफा में भटक कर उसके आहार बने)

सम्पाती

…यह भी अदा थी मेरे बड़प्पन की
कि जब भी गिरुं तो समुद्र के पार!
मेरे पतन तट पर गहरी गुफा हो एक-
बैठूं जहाँ मई समेट कर अपने अधजल पंख
ताकि वे सनद रहें…
जिनको दिखा सकूँ कि पहला विद्रोही था मई
जिसने सूर्य की चुनौती स्वीकारी थी

सूरज बेचारा तो अब अपनी जगह
उतन ही एकाकी वैसा ही ज्वलंत है
मैंने, सिर्फ मैने चुनौतियाँ स्वीकारना बेकार समझ कर
बंद कर दिया है अब!

सुखद है धीरे धीरे बूढ़े होते हुए
गुफा में लेटकर समुद्र को पछाड़ें कहते हुए देखना

कभी कभी छलांग कर समुद्र पार करने का
कोई दुस्साहसी इस गुफा में आता है
कहता हूँ मै तू! ओ अनुगामी तू मेरा आहार है!
(क्योकि आखिर क्यों वे मुझे याद दिलाते है मेरे उस रूप की, भूलना जिसे अब मुझे ज्यादा अनुकूल है!)

उनके उत्साह को हिकारत से देखता हुआ
मै फिर फटकारता हूँ अपने अधजले पंख
क्योकि वे सनद है
कि प्रामाणिक विद्रोही मै ही था, मै ही हूँ

नहीं, अब कोई संघर्ष मुझे छोटा नहीं
वह मै नहीं
मेरा भाई था जटायु
जो व्यर्थ के लिए जाकर भीड़ गया दशानन से
कौन है सीता?
और किसको बचायें? क्यों?
निरदृत तो आखिर दोनों ही करेंगे उसे
रावण उसे हार कर और राम उसे जीत कर
नहीं, अब कोई चुनौती मुझे छूती नहीं

————————————
गुफा में अब शान्ति है…
————————————

कौन है ये समुद्र पार करने के दावेदार
कह दो इनसे कि अब यह सब बेकार है
साहस जो करना था कबका कर चूका मै
ये क्यों कोलाहल कर शान्ति भांग करते है
देखते नहीं ये
कि सुखद है मेरे लिए झुर्रियां पड़ती हुई पलके उठा कर
गुफा में पड़े पड़े समुद्र को देखना…

∼ धर्मवीर भारती

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