A house of glass ; A house of sand
जब तक यह शीशे का घर है, तब तक ही पत्थर का डर है, आँगन–आँगन जलता जंगल, द्वार–द्वार सर्पों का पहरा, बहती रोशनियों में लगता, अब भी कहीं अँधेरा ठहरा।

शीशे का घर – श्रीकृष्ण तिवारी

Many apprehensions in life are conditional, depending upon some basic premise and notions. Once the basic notions are discarded, the apprehensions vanish. Here is a lovely poem by Shri Krishna Tiwari. Tiwari Ji died last year (2013). Rajiv Krishna Saxena

शीशे का घर

जब तक यह शीशे का घर है
तब तक ही पत्थर का डर है
आँगन–आँगन जलता जंगल
द्वार–द्वार सर्पों का पहरा
बहती रोशनियों में लगता
अब भी कहीं अँधेरा ठहरा।

जब तक यह बालू का घर है
तब तक ही लहरों का डर है
टहनी–टहनी टंगा हुआ है
जख्म भरे मौसम का चेहरा
गलियों में सन्नाटा पसरा।

जब तक यह काज़ल का घर है
तब तक ही दागों का घर है
धरती पल–पल दहक रही है
जर्रा–जर्रा पिघल रहा है
चांद सूर्य को कोई अजगर
धीरे–धीरे निगल रहा है।

जब तक यह बारूदी घर है
तब तक चिनगारी का डर है।

∼ श्रीकृष्ण तिवारी

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