Unperturbed in adversity
जो सज़ा भोगते रहे सदा सच कहने की, जो प्रभुता‚ पद‚ आतंकों से नत हुए नहीं. जो विफल रहे पर कृपा ना माँगी घिघियाकर, जो किसी मूल्य पर भी शरणागत हुए नहीं।

व्यक्तित्व का मध्यांतर – गिरिजा कुमार माथुर

Here is a beautiful poem by Girija Kumar Mathur depicting the sense of failure that a man invariably feels at the end of his career.  It is very difficult to define a successful life. When a man looks back at his own life, it looks mediocre and unremarkable. Veer Savarkar lived a life full of extreme adversities. Only his strong sense of conviction must have carried him through. This poem talks about extreme adversities, so I used the photo of Veer Savarkar.

Last two stanza of this poem seems apologetic, almost a deliberate attempt to somehow hit an optimistic note. The two stanzas before the last two are lovely and call a spade a spade. I am tempted to paraphrase these lines;

The youth slips away, the work remains half done
active years draw to a close, our actions worthless
our achievements none… Rajiv Krishna Saxena

व्यक्तित्व का मध्यांतर

लो आ पहुँचा सूरज के चक्रों का उतार
रह गई अधूरी धूप उम्र के आँगन में
हो गया चढ़ावा मंद वर्ण–अंगार थके
कुछ फूल रह गए शेष समय के दामन में।

खंडित लक्ष्यों के बेकल साये ठहर गए
थक गये पराजित यत्नों के अन–रुके चरण
मध्याह्न बिना आये पियराने लगी धूप
कुम्हलाने लगा उमर का सूरजमुखी बदन।

वह बाँझ अग्नि जो रोम–रोम में दीपित थी
व्यक्तित्व देह को जला स्वयं ही राख हुई
साहस गुमान की दोज उगी थी जो पहले
वह पीत चंद्रमा वाला अन्धा पाख हुई।

 

रंगीन डोरियाँ ऊध्र्व कामनाओं वाली
थे खींचे जिनसे नय–नये आकाश दिये
हर चढ़े बरस ने तूफानी उँगलियाँ बढ़ा
अधजले दीप वे एक–एक कर बुझा दिये।

तन की छाया सी साथ रही है अडिग रात
पथ पर अपने ही चलते पाँव चमकते हैं
रह जाती ज्यों सोने की रेत कसौटी पर
सोने के बदले सिर्फ निशान झलकते हैं।

आ रहीं अँँधिकाएँ भरने को श्याम रंग
हर उजले रंग का चमक चँदोवा मिटता है
नक्षत्र भावनाओं के बुझते जाते हैं
हर चाँद कामना का सियाह हो उगता है।

 

हर काम अधूरे रहे वर्ष रस के बीते
वय के वसंत की सूख रही आख़िरी कली
तूफ़ान भँवर में पड़ कर भी मोती न मिले
हर मोती में सूनी वन्धया चीत्कार मिली।

चल रहा उमर का रथ दिनान्त के पहियों पर
मंज़िलें खोखली पथ ऊसर एकाकी है
गति व्यर्थ गई उपलब्धिहीन साधना रही
मन में लेकिन संध्या की लाली बाकी है।

इस लाली का मैं तिलक करूँ हर माथे पर
दूँ उन सब को जो पीड़ित हैं मेरे समान
दुख‚ दर्द‚ अभाव भोगकर भी जो झुके नहीं
जो अन्यायों से रहे जूझते वक्ष तान।

जो सज़ा भोगते रहे सदा सच कहने की
जो प्रभुता‚ पद‚ आतंकों से नत हुए नहीं
जो विफल रहे पर कृपा ना माँगी घिघियाकर
जो किसी मूल्य पर भी शरणागत हुए नहीं।

∼ गिरिजा कुमार माथुर

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