भीग रहा है गाँव - अखिलेश कुमार सिंह

भीग रहा है गाँव – अखिलेश कुमार सिंह

What seems so pretty from a distance may have its own tales of sorrow. Tales that people watching from a distance will never know. Read this lovely poem by Akhilesh Kumar Singh. Rajiv Krishna Saxena

भीग रहा है गाँव

मुखिया के टपरे हरियाये
बनवारी के घाव
सावन की झांसी में गुमसुम
भीग रहा है गाँव

धन्नो के टोले का तो
हर छप्पर छलनी है
सब की सब रातें अब तो
आँखों में कटनी हैं
चुवने घर में कहीं नहीं
खटिया भर सूखी ठाँव

निंदियारी आँखें लेकर
खेतों में जाना है
रोपाई करते करते भी
कजली गाना है
कीचड़ में ही चलते चलते
सड़ जाएंगे पाँव

∼ अखिलेश कुमार सिंह

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