सूना घर – दुष्यंत कुमार

An empty house… pleasant memories of the now-gone home-maker. Memories of laughter and the jingling of bangles… how does one come to terms with this kind of emptiness? Rajiv Krishna Saxena

सूना घर

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर
अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर
खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।

पर कोई आया गया न कोई बोला
खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला
आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को।

फिर घर की खामोशी भर आई मन में
चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में
उच्छ्वास छोड़कर ताका शून्य गगन को।

पूरा घर अँधियारा, गुमसुम साए हैं
कमरे के कोने पास खिसक आए हैं
सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को।

∼ दुष्यंत कुमार

लिंक्स:

 

Check Also

जाने क्या हुआ कि दिन काला सा पड़ गया

जाने क्या हुआ – ओम प्रभाकर

Human interactions are most complex. Events some times take life of their own. People just …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *