तन हुए शहर के – सोम ठाकुर

तन हुए शहर के – सोम ठाकुर

People move from familiar surroundings, where they were born and raised, to alien cities and alien countries in search of a living. Compromises are made for the sake of careers and money. But some where in the corner of their heart, there is some one who misses sorely their childhood; those magical places and times that probably never would come back. Look especially at the nostalgia depicted in last stanza. – Rajiv Krishna Saxena

तन हुए शहर के

तन हुए शहर के
पर‚ मन जंगल के हुए।
शीश कटी देह लिये
हम इस कोलाहल में
घूमते रहे लेकर
विष–घट छलके हुए।

छोड़ दीं स्वयं हमने सूरज की उंगलियां
आयातित अंधकार के पीछे दौड़कर।
देकर अंतिम प्रणाम धरती की गोद को
हम जिया किए केवल खाली आकाश पर।
ठंडे सैलाब में बहीं बसंत–पीढ़ियां‚
पांव कहीं टिके नहीं
इतने हलके हुए।

लूट लिये वे मेले घबराकर ऊब ने
कड़वाहट ने मीठी घड़ियां सब मांग लीं।
मिटे हुए हस्ताक्षर भी आदिम गंध के
बुझी हुई शामें कुछ नजरों ने टांग लीं।
हाथों में दूध का कटोरा
चंदन–छड़ी –
वे सारे सोन प्रहार
रिसते जल के हुए।

कहां गये बड़ी बुआ वाले वे आरते
कहां गये गेरू–काढ़े वे सतिये द्वार के
कहां गये थापे वे जीजी के हाथों के
कहां गये चिकने पत्ते बन्दनवार के
टूटे वे सेतु जो रचे कभी अतीत ने
मंगल त्योहार–वार
बीते कल के हुए।

∼ सोम ठाकुर

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