अपनापन – बुद्धिसेन शर्मा

अपनापन – बुद्धिसेन शर्मा

Sometimes, things change unexpectedly and for the better that looks like a divine intervention and surprises people. Here is a poem depicting that. Rajiv Krishna Saxena

अपनापन

चिलचिलाती धूप में सावन कहाँ से आ गया
आप की आँखों में अपनापन कहाँ से आ गया।

जब वो रोया फूट कर मोती बरसने लग गये
पास एक निर्धन के इतना धन कहाँ से आ गया।

दूसरों के ऐब गिनवाने का जिसको शौक था
आज उसके हाथ में दरपन कहाँ से आ गया।

मैं कभी गुज़रा नहीं दुनियाँ तेरे बाज़ार से
मेरे बच्चों के लिये राशन कहाँ से आ गया।

पेट से घुटने सटाकर सो गया फुटपाथ पर
पूछो दीवाने को योगआसन कहाँ से आ गया।

कोई बोरा तक बिछाने को नहीं है जिसके पास
उसके कदमों में ये सिंहासन कहाँ से आ गया।

मैंने तो मत्थे को रगड़ा था तेरी दहलीज पर
मेरी पेशानी पे ये चंदन कहाँ से आ गया।

कैसे दुनियाँ को बताएँ बंद आँखों का कमाल
मूंदते ही आँख वो फौरन कहाँ से आ गया।

∼ बुद्धिसेन शर्मा

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