झर गये पात – बालकवि बैरागी

झर गये पात – बालकवि बैरागी

Old is banished as the new comes. Yesterday what was new and was welcomed by the world with all enthusiasm, today lies discarded and forgotten. This is the rule of Nature. Here is a touching poem by Balkavi Bairagi – Rajiv Krishna Saxena

झर गये पात

झर गये पात
बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

नव कोंपल के आते–आते
टूट गये सब के सब नाते
राम करे इस नव पल्लव को
पड़े नहीं यह पीड़ा सहनी
झर गये पात बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

कहीं रंग है‚ कहीं राग है
कहीं चंग है‚ कहीं फाग है
और धूसरित पात नाथ को
टुक–टुक देखे शाख विरहनी
झर गये पात बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

पवन पाश में पड़े पात ये
जनम–मरण में रहे साथ ये
“वृन्दावन” की श्लथ बाहों में
समा गई ऋतु की “मृगनयनी”
झर गये पात बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

~ बालकवि  बैरागी

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2 comments

  1. “युद्ध और मेहंदी” ये कविता पढणी है

  2. बहुत बढिया, प्रणाम सर

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