नदी के पार से मुझको बुलाओ मत - राजनारायण बिसारिया

नदी के पार से मुझको बुलाओ मत – राजनारायण बिसारिया

Despondency of unfulfilled love is one of the greatest emotional upheaval a human being can face. Here Bisariya Ji puts forward a rationalization, a perspective on the issue. Man is essentially alone and finding a soul-mate essentially a mirage. A lovely poem, please read on – Rajiv Krishna Saxena

नदी के पार से मुझको बुलाओ मत

नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!
हमारे बीच में विस्तार है जल का
कि तुम गहराइयों को भूल जाओ मत!

कि तुम हो एक तट पर, एक पर मैं हूं
बहुत हैरान दूरी देख कर मैं हूं‚
निगाहें हैं तुम्हारी पास तक आतीं
कि बाहें हैं स्वयं मेरी फड़क जातीं!

गगन में ऊंघती तारों भरी महफिल
न रुकती है‚ नदी की धार है चंचल
न आहों से मुझे तुम पास ला सकतीं
न बाहों में नदी को चीरने का बल!

कि रेशम–सी मिलन की डोर टूटी है
निगाहों में मुझे अब तुम झुलाओ मत।
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

नदी है यह समय की जो मचलती है
चिरंतन है नदी‚ धारा बदलती है
नदी है तो किनारे भी अलग होंगे
मिलेंगे भी अगर हम–तुम‚ विलग होंगे

मनुज निज में सदा से ही इकाई है
मिलन की बात झूठों नें बनाई है
तटों के बीच में दूरी रहेगी ही
कभी जल नें घटाई है बढ़ाई है!

मिलन है कांच से कच्चा कि अब इस पर
रतन से लोचनों को तुम रुलाओ मत!
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

मिलन मिथ्या कि मिलनातुर हृदय सच है
हृदय सच है‚ हृदय–तल का प्रणय सच है
प्रणय के सामने दूरी नहीं कुछ भी
प्रणय कब देखता सुनता कहीं कुछ भी।

चमन में बज रही है फूल की पायल
सुरभि के स्वर पवन को कर रहे चंचल‚
किरण्–कलियां गगन से फेंकती कोई
किसी का हिल रहा लहरों–भरा अंचल!

हृदय की भावना है मप दूरी की
मुझे अपने हृदय से तुम भुलाओ मत!
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

प्रणय का लो तुम्हें बदला चुकाता हूं
सितारों को गवाही में बुलाता हूं
जगत करता नदी में दीप अर्पित है।
लहर पर तो हृदय–दीपक विसर्जित है।

अगर तुम तक बहा ले जाए जल का क्रम
इसे निज चम्पई कर में उठा कर तुम‚
रची मंहदी न जिसकी देख मैं पाया
उसी कोमल हथेली में छुपा लो तुम!

हवा आए‚ बुझा जाए न कोई भय
यही काफी है कि अंचल से बुझाओ मत!
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

~ राजनारायण बिसारिया

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