साकेत: दशरथ का श्राद्ध, राम भरत संवाद
वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी, प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी। “हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”, सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।

साकेत: दशरथ का श्राद्ध, राम भरत संवाद – मैथिली शरण गुप्त

Kaikayi had coerced Dashrath to give the kingdom of Ayodhya to her son Bharat and banished the elder stepson Ram to the forest for 14 years. Bharat loved his elder brother too much to have allowed this to happen but unfortunately, he was away when all this happened. Dashrath died from the shock of these events and Ram left to live in the forest along with Lakshman and Sita. When Bharat returned to Ayodhya, he was devastated at all that had happened behind his back. The following poem is a part of the Saket Mahakavya written by Rashtra Kavi Methali Sharan Gupt and describes the visit of Bharat and repentant mother Kaikayi to Ram in the forest. The purpose was to do the last rites (shraddha) of Father Dashrath, but the real objective was to request Ram to come back to Ayodhya and be the king as he rightly deserved. Last rites having been completed, all those present sat in an assembly. Read the following very moving lines describing the events and dialog between brothers. Meanings of some difficult words have been provided – Rajiv Krishna Saxena

साकेत: दशरथ का श्राद्ध, राम भरत संवाद

उस ओर पिता के भक्ति-भाव से भरके,
अपने हाथों उपकरण इकट्ठे करके,
प्रभु ने मुनियों के मध्य श्राद्ध-विधि साधी,
ज्यों दण्ड चुकावे आप अवश अपराधी।

पाकर पुत्रों में अटल प्रेम अघटित-सा,
पितुरात्मा का परितोष हुआ प्रकटित-सा।
हो गई होम की शिखा समुज्ज्वल दूनी,
मन्दानिल में मिल खिलीं धूप की धूनी।

अपना आमंत्रित अतिथि मानकर सबको,
पहले परोस परितृप्ति-दान कर सबको,
प्रभु ने स्वजनों के साथ किया भोजन यों,
सेवन करता है मन्द पवन उपवन ज्यों।

तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे,
नीले वितान के तले दीप बहु जागे।
उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रह कर,
करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह मह कर।

वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी,
प्रभु बोले गिरा गभीर नीरनिधि जैसी।
“हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”
सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।

“हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?
मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?
पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,
रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?

तनु तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागा,
क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?
हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,
निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।

अब कौन अभीप्सित और आर्य वह किसका?
संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका।
मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा,
हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?”

प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा;
रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा!
“उसके आशय की थाह मिलेगी किसको,
जन कर जननी ही जान न पाई जिसको?”

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— मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)

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